हमारी प्रेरणा
बाबू जगदेव प्रसाद
बाबू जगदेव प्रसाद जिन्हें ‘बिहार लेनिन’ भी कहा जाता है, बहुत ही क्रांतिकारी राजनेता थे. उनका जन्म बिहार के अरवल जिले (पूर्व में गया जिले) के कुर्था ब्लॉक के कुराहरी गांव में 2 फरवरी 1922 को हुआ था जो बिहार की राजधानी पटना से लगभग 75 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में स्थित है. बिहार में जाति व्यवस्था के अनुसार उनका जन्म दांगी जाति में हुआ था जो कुशवाहा (मौर्या) की उपजाति है (हेरिटेज टाइम्स, 2018) और पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत आती है. उनके दादा का नाम इंद्रजीत प्रसाद था. उनके के पिता का नाम प्रयाग नारायण कुशवाहा था और माता का नाम रासकली देवी था जो एक सामान्य गृहणी थीं. प्रयाग नारायण कुशवाहा प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक थे और उनकी कुल चार सन्तानें थीं. चार भाईयों-बहनों में जगदेव बाबू सबसे बड़े थे. उनसे छोटी दो बहनें और एक छोटे भाई वीरेंद्र कुशवाहा थे. उनका विवाह सत्यरंजना देवी के साथ हुआ था जब वो हाई स्कूल में पढ़ रहे थे. गरीब परिवार में जन्मे जगदेव प्रसाद का बचपन बहुत ही गरीबी में गुजरा था. और जल्दी ही पिता की मृत्यु ने उन्हें और जिम्मेदार बना दिया.
अपने घर के निकट प्राथमिक पाठशाला कुर्था से उन्होंने मिडिल स्कूल की पढ़ाई की और आगे की पढ़ाई के लिए जहानाबाद चले गए और वहीं के बी टी स्कूल जहानाबाद से वर्ष 1946 में मेट्रिक की परीक्षा पास की. शादी के उपरांत परिवार को छोड़कर महज 11 रुपये लेकर जगदेव बाबू पटना चल पड़े. जब वे पटना के गांधी मैदान में उदास बैठे थे तभी उनकी मुलाक़ात बी एम कॉलेज पटना के एक माली से हुई. बातचीत के दौरान उनकी परेशानियों और गरीबी से द्रवित होकर माली ने उनका दाखिला बीएम कालेज पटना में करवा दिया और आधी फीस भी माफ करवा दी. इस तरह उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से वर्ष 1948 में स्नातक की परीक्षा पास की. पटना विश्वविद्यालय से ही उन्होंने वर्ष 1950 में इकोनोमिक्स (अर्थशास्त्र) में परास्नातक (पोस्ट ग्रेजुएट) डिग्री हासिल की. जगदेव बाबू ने पटना में पढ़ाई के दौरान बहुत कष्ट झेले. आर्थिक तंगी के साथ घरेलू झंझावतों ने भी उनकी परीक्षा ली, फिर भी वो अपनी पढ़ाई में लगे रहे. वे चपरासी क्वार्टर के बरामदे में रहे और बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपना अध्ययन जारी रखा और इसी दौरान उनका परिचय हॉस्टल में रहने वाले चंद्रदेव प्रसाद वर्मा से हुआ जो उन्हें अपने साथ छात्रावास के कमरे में रखे और जगदेव बाबू को विभिन्न विचारकों को पढ़ने, जानने-सुनने के लिए उत्साहित किया
जगदेव बाबू के कुछ संस्मरण
जगदेव बाबू बचपन से ही निडर और विद्रोही स्वभाव के थे. एक बार जगदेव बाबू जब नए और अच्छे कपडे़ पहनकर स्कूल गए थे तो कुछ सवर्ण लड़के उनकी हंसी उड़ाने लगे और उन्हें भला बुरा कहने लगे जिससे उन्हें बहुत क्रोध आया. गुस्से में आकर उन्होंने उन लड़कों की पिटाई कर दी और उनकी आँखों में धूल झोंक दिये जिसके कारण उनके पिता को जुर्माना भरना पड़ा और माफ़ी भी मांगनी पडी
एक और बचपन की घटना है. एक बार उनके स्कूल के अध्यापक ने बिना किसी गलती के ही उन्हें थप्पड़ मार दिया था और भला बुरा कह दिया. इससे वे बहुत दुखी रहने लगे. कुछ दिनों बाद वही शिक्षक जब कक्षा में कुर्सी पर बैठे बैठे खर्राटे भरने लगा, तभी जगदेव बाबू ने उसके गाल पर एक जोरदार चांटा मारा जिसके लिए उनकी स्कूल के प्रधानाचार्य से शिकायत की गयी तो इस पर जगदेव बाबू ने निडर होकर प्रधानाचारी से कहा, ‘गलती के लिए सबको बराबर सजा मिलना चाहिए चाहे वो छात्र हो या शिक्षक’.
जगदेव बाबू के शिक्षक और नजदीकी सच्चिदानंद श्याम के अनुसार बाबू जगदेव प्रसाद ने लोक सेवा आयोग की डिप्टी कलेक्टर की परीक्षा पास किया था और इंटरव्यू भी दिया था लेकिन इंटरव्यू में बोर्ड के सदस्यों ने उन्हें अपमानित किया और कहा गया कि क्या करोगे अधिकारी बन कर? जाओ सब्जी भाजी उगाओ और बेचो. यह सुनकर जगदेव बाबू ने इंटरव्यू का बहिष्कार कर दिया. इंटरव्यू देने आए एक अन्य प्रतियोगी भोला प्रसाद सिंह ने जब ये सुना तो उन्होंने भी इंटरव्यू का बहिष्कार कर दिया था।
वर्ष 1946 में जब जगदेव बाबू घर से बाहर रहकर जहानाबाद में पढ़ाई कर रहे थे तभी उनके पिता जी बीमार पड़ गए और उनकी माँ ने सभी देवी-देवताओं से उनकी स्वस्थ होने की प्रार्थना की लेकिन वे फिर भी ठीक नहीं हुए और अंतत उनकी मृत्यु हो गयी. पिता की मृत्यु और माँ की लाचारी देखकर जगदेव बाबू बहुत दुखी हुए और यहीं से उनके मन में हिन्दू धर्म के प्रति विद्रोह और नफरत की भावना पैदा हो गयी. लोग बताते हैं कि उन्होंने घर के सभी देवी-देवताओं की मूर्तियों और तस्वीरों को उठाकर पिता की अर्थी पर डाल दिया और उन्हें भी पिता की चिता के साथ जला दिया. उन्होंने अपनी पिता की मृत्यु के बाद कोई भी श्राद्ध या कर्मकांड नहीं किया, बस एक शोक सभा और सामूहिक भोज करवा के कार्यक्रम सम्पन्न किया।
गृहस्थ जीवन
पढ़ाई पूरी करने के बाद लोक सेवा आयोग के अपमानजनक व्यवहार से दुखी होकर जगदेव बाबू ने सचिवालय में नौकरी कर लिया और परिवार को आर्थिक सहायता देने लगे. लेकिन उन्हें अभी और परीक्षाएं देनी थीं. अधिकारियों के जातिवादी और सामंतवादी रवैये से तंग आकर उन्होंने तीन महीने बाद नौकरी से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद उन्होंने गया में एक हाई स्कूल की स्थापना की और उसके प्रधानाध्यापक के रूप में कार्य करने लगे और इसी दौरान वो राम मनोहर लोहिया के संपर्क में आए और समाजवादी आंदोलन में कूद पड़े. उन्होंने बिहार के कई भागों की यात्रा की और समाज के दुख-दर्द को समझने की कोशिश की. धीरे धीरे उनका मन स्कूल से विरक्त होने लगा और एक दिन स्कूल से इस्तीफा देकर पूरी तरह राजनीति में कूद पड़े।
उनके छोटे भाई वीरेंद्र कुशवाहा के अनुसार राजनीति में जाने के कारण घर की माली स्थिति बहुत बिगड़ गयी और, क्यूंकि घर चलाना मुश्किल हो रहा था, इसलिए उन्हें भी पढ़ाई छोड़कर जहानाबाद में स्वास्थ्य विभाग में नौकरी करनी पड़ी. लेकिन वीरेंद्र कभी भी जगदेव बाबू को घर की गरीबी और परेशानी के बारे में कुछ भी नहीं बताते थे।
एक घटना का जिक्र करते हुए वीरेंद्र कहते हैं कि “एक दिन वो जब वे कॉलेज से घर आए तो सीधे अपनी भाभी से मिलने चले गए और देखा कि भाभी एक पुरानी साड़ी पहने हुई थी और उसमें कई जगह पैबंद लगे थे .मुझे अचानक देख कर भाभी मुझसे असहज होने लगी और कहने लगी अरे वैसे ही पहन लिया था मेरे पास कई और साड़ियाँ हैं. लेकिन जब मैंने और साड़ियाँ दिखाने का आग्रह किया तो कोई साड़ी नहीं दिखा पाईं. जब मैंने अपनी पत्नी से पूछा तो उसने बताया कि उनके पास एक और साड़ी है जो थोड़ा ठीक-ठाक है जिसका प्रयोग वो कभी कभार बाहर जाने के लिए करती हैं. जब मैंने पूछा कि मुझे क्यूँ नहीं बताया तो मेरी पत्नी ने कहा दीदी ने आप लोगों से घर की परेशानियाँ बताने से मना किया था. इस घटना के बाद मैंने पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने का निर्णय ले लिया” (द फ्रीडम, 2018). घर परिवार की तकलीफ़ों को दरकिनार करते हुए जगदेव बाबू सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में तल्लीन रहने लगे. यहाँ तक कि कभी कभार जब घर आते तो छोटे भाई से कुछ आर्थिक मदद भी लेते थे।
पत्रकारिता का सफर
अर्थशास्त्र में एमए की डिग्री लेने के बाद उनका रूझान पत्रकारिता की ओर हुआ और वे पटना सहित अन्य कई शहरों की पत्र-पत्रिकाओं में क्रांतिकारी लेख और रचनाएँ लिखने लगे. सामाजिक न्याय और बहुजन हितों के लिए आवाज उठाने वाले लेखों के कारण उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा लेकिन इस साहसी पत्रकार को अपनी बात कहने से कोई रोक नहीं सका. वर्ष 1952 में शोसलिस्ट पार्टी के मुखपत्र “जनता” का सम्पादन शुरू किया और उसे जन जन तक पहुंचाया।
वर्ष 1955 मे हैदराबाद से निकलने वाले अंग्रेजी साप्ताहिक ‘सिटीज़न‘ और हिंदी पत्रिका ‘उदय’ के संपादन से भी जुड़े और सामाजिक न्याय और बहुजन भागीदारी पर खूब लिखा. सवर्णों द्वारा मिलने वाली हजारों धमकियों के बावजूद पत्रकारिता का ये सच्चा सिपाही कभी भी न हताश हुआ और न ही डरा और खुल्लमखुल्ला सामाजिक न्याय और शोषितों के हक़ और हुकूक के लिए बराबर आवाज़ उठाता रहा. बाद में जगदेव बाबू पर काफी दबाव बनाया जाने लगा कि वे सामाजिक मुद्दे न उठाएँ और उसके बाद प्रकाशकों के गैरजरूरी हस्तक्षेप और अपनी बात न लिख पाने के क्षोभ के कारण पत्रिकाओं के मालिकों से कहा सुनी हुई और वाद-विवाद बढ़ने पर सिटीज़न और उदय दोनों पत्रिकाओं के संपादक पद से इस्तीफा दे दिया और वापस पटना लौट कर सामाजिक कार्यों में पुनः जुट गए।
सामाजिक लड़ाई का सफर
हैदराबाद से वापस आते ही जगदेव बाबू समाजवादी आंदोलन का हिस्सा बन गए और बिहार के सामाजिक आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे. वे ग़ज़ब के वक्ता थे. उनकी आवाज़ में जादू था, जो लोगों को देर तक बांधे रहता था और लोगों में जोश और ऊर्जा भर देता था. बिहार में उसी समय समाजवाद के दो स्तम्भ उभरे थे. एक थे जय प्रकाश नारायण और दूसरे राम मनोहर लोहिया. लेकिन ये जोड़ी बहुत दिन तक साथ न रह सकी और आपसी मतभेदों के कारण टूट गयी. जयप्रकाश नारायण लोहिया को मझधार में छोडकर अलग हो गए. उसी समय जगदेव बाबू ने लोहिया का साथ दिया।
बिहार की राजनीति में प्रजातंत्र को स्थायी रूप से स्थापित करने के लिए उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति की जरूरत महसूस की और मानववादी रामस्वरूप वर्मा द्वारा स्थापित ‘अर्जक संघ’ (स्थापना 1 जून, 1968) में शामिल हो गए. अर्जक संघ सभी धार्मिक सांस्कृतिक कर्मकांडों के लिए ब्राह्मण धर्म के बरक्स एक समांतर व्यवस्था थी. जगदेव बाबू ने कहा था कि अर्जक संघ के सिद्धांतों के द्वारा ही ब्राह्मणवाद को ख़त्म किया जा सकता है और सांस्कृतिक परिवर्तन कर मानववाद स्थापित किया जा सकता है. उन्होंने आचार, विचार, व्यवहार और संस्कार को अर्जक विधि से मनाने पर बल दिया।
जब जगदेव बाबू ने 1960-70 के दशक में सामाजिक क्रांति का बिगुल फूंका था तो उन्होंने कहा था कि- ‘यदि आपके घर में आपके ही बच्चे या सगे-संबंधी की मौत हो गयी हो किन्तु यदि पड़ोस में ब्राह्मणवाद विरोधी कोई सभा चल रही हो तो पहले उसमें शामिल हो’. अब आप खुद सोचिए कि उनमें ब्राह्मणवाद को मिटाने के लिए किस हद तक दीवानंगी थी.
इन्हें जगदेव बाबू को बिहार-लेनिन उपाधि हज़ारीबाग जिला में पेटरवार (तेनुघाट) में एक महतो सभा में वहीं के लखन लाल महतो, मुखिया एवं किसान नेता ने अभिनन्दन करते हुए दी थी (हेरिटेज टाइम्स, 2018).
राजनैतिक जीवन एवं राजनैतिक निर्णय
जगदेव बाबू ने राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर सोशलिस्ट पार्टी को मजबूत बनाया और उसे एक नया संगठनात्मक ढांचा दिया और लाखों लोगों को सामाजिक विधारधारा से जोड़ा और सामाजिक आंदोलन को बिहार के घर घर तक पहुंचा दिया. वर्ष 1957 में उन्हें शोसलिस्ट पार्टी से विक्रमगंज लोकसभा (सासाराम) से लोकसभा का टिकट मिला लेकिन वे उस चुनाव में सफल नहीं हो सके और काफी बड़े अंतर से चुनाव हार गए. एक बार वर्ष 1962 में उन्होंने फिर से किस्मत आजमाई और अपनी घरेलू सीट कुर्था से विधानसभा का चुनाव लड़ा लेकिन वहां पर भी हार का सामना करना पड़ा. पैसे न होने के कारण वे टमटम और साइकिल से चुनाव प्रचार करते थे।
उनके प्रयासों से वर्ष 1966 में राम मनोहर लोहिया की शोसलिस्ट पार्टी और जय प्रकाश नारायण और जे बी कृपलानी की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का विलय हुआ और एक नई पार्टी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ. जुझारू जगदेव बाबू एक बार फिर से इस नई पार्टी के उम्मीदवार बने और कुर्था सीट से 1967 में विधानसभा का चुनाव जीतने में सफल हुए. इस तरह उनके प्रयासों से पहली बार बिहार राज्य में गैर कांग्रेसी सरकार बनी. और 5 मार्च 1967 महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री बने. बाद में पार्टी की नीतियों तथा विचारधारा के मसले पर उनकी राम मनोहर लोहिया से अनबन हुई और जगदेव बाबू ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी को छोड़ दिया और दिनांक 25 अगस्त 1967 को पटना के अंजुमन इस्लामिया हाल में एक नए राजनीतिक दल “शोषित दल” का गठन किया जिसमे बी पी मण्डल भी उनके साथ थे।
महामाया सिन्हा की सरकार गिरने के बाद, कांग्रेस पार्टी की मदद से शोषित दल की सरकार बनी जिसमे बी पी मण्डल मुख्यमंत्री थे और जगदेव बाबू इस सरकार में सिंचाई और बिजली मंत्री बने. यह सरकार बस 50 दिन ही चल सकी और 18 मार्च 1968 को 17 मतों से यह सरकार गिर गयी।
इसके बाद 1969 में मध्यावधि चुनाव हुए और शोषित दल को 6 सीटें मिली जिसमे जगदेव बाबू कुर्था से फिर जीत गए. 26 फरवरी 1969 को सरदार हरिहर सिंह मुख्य मंत्री बने जिसमे जगदेव बाबू नदी घाटी मंत्री बने. लेकिन यह सरकार भी साढ़े तीन महीने के बाद गिर गयी और फिर भोला पासवान शास्त्री नेतृत्व में सरकार बनी जो मात्र 9 दिनों के बाद 1 जुलाई 1969 को गिर गयी और राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।
2 मार्च 1970 को कई अन्य दलों के सहयोग से ‘शोषित दल’ कई अन्य दलों के सहयोग से दारोगा प्रसाद मुख्य मंत्री बने इस सरकार में जगदेव बाबू को फिर से सिंचाई, बिजली और योजना मंत्री बने. यह सरकार भी 18 दिसंबर 1970 को गिर गयी. वर्ष 1972 में जगदेव बाबू कुर्था से पुनः विधान सभा से लड़े लेकिन इस बार वे चुनाव हार गए।
एक ऐतिहासिक निर्णय द्वारा 7 अगस्त 1972 को जगदेव प्रसाद के शोषित दल और रामस्वरूप वर्मा जी की पार्टी ‘समाज दल’ का एकीकरण हुआ और ‘शोषित समाज दल’ नामक नई पार्टी का गठन किया गया. जिसके अध्यक्ष राम स्वरूप वर्मा जी और महासचिव जदगेव बाबू थे. जगदेव बाबू पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में एक नए जोश के साथ बहुत सारे दौरे किए और पार्टी का ढांचा मजबूत किया. जगदेव बाबू ने बिहार की राजनीति में एक नए और क्रांतिकारी दौर की शुरुआत की जिससे सामंतवादी, मनुवादी और ब्राह्मणवादी लोगों और राजनीतिज्ञों को परेशानी होने लगी और वे उनके जान के दुश्मन बन बैठे।
छः सूत्री मांग को लेकर राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह
जगदेव बाबू ने कांग्रेस की तानाशाही सरकार के खिलाफ हो रहे छात्र आंदोलन को जन-आन्दोलन का रूप देने के लिए मई 1974 को 6 सूत्री मांगों को लेकर पूरे बिहार में घूम घूम कर सैकड़ों जन सभाएं की. जगदेव बाबू ने कांग्रेस सरकार पर दबाव बनाने की बहुत कोशिश की लेकिन भ्रष्ट प्रशासन तथा ब्राह्मणवादी सरकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ा. जिसके फलस्वरूप उन्होंने 5 सितम्बर 1974 से राज्य-व्यापी सत्याग्रह शुरू करने की घोषणा कर दी(मौर्य, 2018)।
ये जगदेव बाबू की ही देन है कि उनकी मृत्यु के बाद से लेकर आजतक बिहार में शोषित समाज के लोगों (दरोगा प्रसाद राय से लेकर नितीश कुमार तक) ने ही मुख्यमंत्री पद को सुशोभित किया और राज किया है।
बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा के नारे (वर्मा, 2012)
जगदेव बाबू ने भारत के गरीबों, किसानों, मजदूरों की हिस्सेदारी और अधिकार के लिए जो नारे दिये वो अमर हो गए है और आज भी लोगों में जोश भरने के काम आ रहे हैं. आईये उनके द्वारा लिखे कुछ नारों को देखते हैं: सवर्णों की औरतों को खेतों में काम करने के संदर्भ में
अगला सावन भादों में.
गोरी कलाई कादों में’
सामाजिक भागीदारी और प्रतिनिधित्व के संदर्भ में-
दस का शासन नब्बे पर, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा’
सौ में नब्बे शोषित है, नब्बे भाग हमारा है
धन-धरती और राजपाट में, नब्बे भाग हमारा है’
शिक्षा, स्वस्थ्य और राजनीति के महत्त्व के संदर्भ में-
पढ़ो-लिखो, भैंस पालो, अखाड़ा खोदो और राजनीति करो
राजनीति और अन्य क्षेत्रों में सवर्णों की भागीदारी के संदर्भ में
कमाए धोतीवाला और खाये टोपी वाला’
समान शिक्षा व्यवस्था के संदर्भ में-
चपरासी हो या राष्ट्रपति की संतान,
सबको शिक्षा एक सामान.
ब्राह्मणवाद के उन्मूलन के संदर्भ में-
मानववाद की क्या पहचान
ब्राह्मण भंगी एक सामान’
कुर्था में शहादत
बाबू जगदेव प्रसाद एक ऐसा नाम था जिसने 60 और 70 के दशक में पूरे बिहार को हिला कर रख दिया था. जिनका ज़मीनी नारा था- बहुजनों पर अल्पजनों का शासन नहीं चलेगा, इसी बात को लेकर उनकी हत्या कर दी गई थी या यूं कहें कि सत्ताधारी सवर्ण राजनीति उनका क़त्ल कार्य दिया. आजतक आज़ाद भारत में किसी भी राजनेता के साथ इतना अमानवीय और दुभावनापूर्ण व्यवहार नहीं किया (द फ़ाइंडर, 2019).
राम अयोध्या सिंह विद्यार्थी जो जगदेव बाबू के सहयोगी थे, बताते हैं कि 3 सितंबर 1974 की बात है जब बाबू जगदेव प्रसाद अपने गाँव कुर्था जा रहे थे तो रास्ते में अपने कार्यकर्ताओं से अरवल में मिल रहे थे. वहीं उनके एक परिचित बाबू ठाकुर सिंह (स्वतंत्रता सेनानी) भी उनसे मिलने आए थे और उन्होंने जगदेव बाबू को आगाह करते हुए कहा “हे जगदेव बाबू! कुर्था मत जा, 5 सितंबर के तोरा मार देइहैं सब. बिहार भर के भूमिहार के सबके मीटिंग होइल हवा, हमहू भूमिहारइ हइ, सई ई बात जानी थी, हमरौ जानकारी मिलल हइ. कई देइ थी वह तु तो मज़ाक मनबा बाकी हम सच कहीं थि बा, तु कुर्था मत जा 5 सितंबर के.“
इस तरह बाबू ठाकुर सिंह से अपनी मौत का षड्यंत्र सुनके जगदेव बाबू हँसते हुए बोले “ कि ठाकुर बाबू इहाँ जियइ के आइल हइ, सबके तो एक न एक दिन मरीहे लागि हे, इ तो बढ़िया होए के हम जनता के सवाल लेके मरब. कोई बात ना है, हम डेराइत नाही. इ तो बढ़िया बात है ना ठाकुर बाबू कि पहिलका आजादी की लड़ाई में अपने लड़ली, दुसरका आजादी की लड़ाई हम लड़ी थी, हम मराए जाइब तो तिसरका आजादी के लड़ाई फिर हमर लोग लड़िहैं. इ लड़ाई के इतिहास रहत तो आगे की भी लड़ाई जारी रहत. बढ़िया है कि हमने अलगे अलगे टाइम में मरब आजादी लइके”. उसके बाद उन्होंने ठाकुर सिंह को 25 रुपये दिये और कुर्था के लिए प्रस्थान कर गए. दो दिन परिवार के साथ बिताने के बाद 5 सितंबर को कुर्था प्रखण्ड में आहूत मीटिंग को संबोधित करने चले गए
सोचिए अपनी मौत के षड्यंत्र की खबर से भी न डरने वाले ऐसे क्रांतिकारी कितने दिलेर और समाज के लिए कितने समर्पित रहे होंगे जो अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहे और नियत समय पर अपने लोगों के बीच संबोधित करने पहुंचे
कुर्था में भूमिहार सवर्णों द्वारा पहले से ही हत्या का प्लान रचा जा चुका था और वहां पर एक खास सवर्ण जाति के पुलिस के जवान और डिप्टी एसपी और मजिस्ट्रेट तैनात किये जा चुका थे. उस दिन कुर्था प्रखण्ड परिसर की रैली में लगभग बीस हजार जनता मौजूद थी. चारों तरफ शोषित संघर्ष दल के झंडे लहरा रहे थे. सुबह 9 बजे जगदेव बाबू सभा में पहुँच गए थे और वे अपना अभिभाषण शुरू कर चुके थे लेकिन पुलिस लोगों को सभा में जाने से रोक रही थी. लगभग ढाई बजे दिन में जहानाबाद से सीआरपीएफ की बटालियन बुला ली गयी और फिर जनता पर लाठी चार्ज कर दिया गया. इसी बीच डिप्टी एसपी से इशारा पाकर एक जवान ने जगदेव बाबू पर गोली चला दी. पहली गोली उनके पैर में लगी और दूसरी गोली उनके गर्दन को पार कर गयी. जगदेव बाबू तड़पते हुए मंच से नीचे गिर गए और जनता डर के मारे तितर बितर हो गयी. पुलिस ने घायल जगदेव प्रसाद को घसीटते हुए पुलिस थाने तक ले गयी और वहाँ पर उनके साथ बहुत ही बुरा व्यवहार किया गया. उनकी छाती पर बंदूक की बट से मार मार कर उनकी पसलियाँ तोड़ दी गयी थीं. जब वे पानी पानी चिल्ला रहे थे तब कुछ सवर्ण पुलिस वाले उनके मुंह में पेशाब भी कर दिये थे
आज़ाद भारत के इतिहास में किसी भी जनता के प्रतिनिधि के साथ इतनी अमानवीय और क्रूर घटना नहीं हुई होगी जितना की जगदेव बाबू के साथ. उचित उपचार के आभाव में उसी शाम जगदेव बाबू ने ‘जय शोषित, जय भारत’ कहते हुए इस दुनिया को अलविदा कहा. उनकी लाश को गायब करके फेंक देने का प्लान था इसलिए उनकी लाश को उनके समर्थकों को न सौंप कर जंगल में ले जाया गया था लेकिन पटना में उनके साथियों द्वारा धरना देने के कारण अगले दिन सुबह उनकी लाश को वापस लाया गया