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हमारी प्रेरणा

वीरांगना सावित्रीबाई फुले

झलकारी बाई: –झाँसी की रानी का रूप धारण कर अंग्रेज़ों को चकमा देने वाली महिला
जन्म:- 3 जनवरी, 1831, नाँयगाँव, सतारा, महाराष्ट्र
माता का नाम: लक्ष्मीबाई
पिता का नाम: खण्डोजी नेवसे पाटिल
म्रत्यु : 10 मार्च, 1897

माता सावित्री बाई फूले का जन्म माली जाति के शूद्र समाज में हुआ था। इनके पिता नाँयगाँव के पाटिल (मुखिया) किसान थे किन्तु शूद्र होने के कारण वह भी मनुवादी अन्यायपूर्ण अमानवीय सामाजिक व्यवस्था में जीवित रहने को विवश थे। उन्होंने अपनी पुत्री सावित्री का विवाह पूणे निवासी गोविन्दराव फूले के पुत्र ज्योतिराव फूले से किया था। ज्योति राव सुशिक्षित युवक थे। वह शिक्षा के महत्व से भी सुपरिचित थे। उनके अथक प्रयास से सावित्री बाई फूले ने अपनी ससुराल में पढ़ना-लिखना सीखा और सुशिक्षित बन गई।


ज्योतिबा राव फूले सावित्री बाई के आदर्श पति और शिक्षक भी थे। पति-पत्नी के विचारों में अद्भुत समन्वय था। उन्हें मनुवादी असमानतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था, अन्धविश्वास और कर्मकाण्ड में विश्वास नहीं था। वह वर्ण व्यवस्था और जाति-पाँति को समाज का कलंक मानते थे। इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था की शिकार सबसे अधिक महिलाएं और शूद्र थे। ज्योतिबा राव फूले ने महिलाओं में शिक्षा के प्रसार की योजना बना कर 1848 मे पूणें की बुधवार पेठ में पहला बालिका विद्यालय खोला और अल्पवयस्क सावित्री बाई फूले को बालिकाओं को पढ़ाने का दायित्व सौंपा। इस तरह उन्हें भारत की प्रथम महिला शिक्षिका बनने का गौरव प्राप्त हुआ।

पूणे के ब्राह्मणों ने बालिकाओं की शिक्षा और सामाजिक सुधार को धर्म के विरूद्ध मान कर सावित्री बाई का विरोध करना आरम्भ किया। वह राह में उन्हें घेर कर अपमानित करते थे किन्तु सावित्री बाई अपने अद्भुत धैर्य, साहस और प्रतिभा से उन्हें निरूत्तर कर बालिकाओं को नियमित पढ़ाती रहती थी। ब्राह्मणों के प्रबल विरोध के बावजूद फूले दम्पत्ति बिना किसी डर और स्वार्थ के शिक्षा के प्रसार और सामाजिक सुधार सम्बन्धी कार्यों का संचालन करते रहे। उन्होंने पूणे में विभिन्न स्थानों पर 18 शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की थी।माता सावित्री बाई फूले ने महिलाओं के कल्याण हेतु विधवा प्रसूति गृह, बाल हत्या प्रतिबंधक गृह और अनाथालयों की भी स्थापना की जहाँ अपने संबन्धियों से छली हुई विधवाएँ बिना अपना परिचय बताए अनचाहे बच्चे को जन्म देकर वहाँ बच्चा छोड़ कर जा सकती थीं। उन्होंने सती प्रथा, विधवा विवाह निषेध और स्त्री मुंडन आदि अमानवीय प्रथाओं का भी विरोध किया। उन्होंने अपने पति ज्योतिबाराव के निधन के बाद "सत्य शोधक समाज" का भी सफल नेतृत्व किया था जिसकी शाखाएँ महाराष्ट्र के प्रमुख स्थानों पर कार्य कर रही थी। वह प्रमुख वक्ता, कुशल कवि, लेखिका, गम्भीर विचारक और सफल सामाजिक नेत्री थीं। उनकी मराठी कविताओं का संग्रह "काव्य फूले", पत्रों के दो संग्रह और विभित्र भाषणों के तीन संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं।

माता सावित्री बाई फूले साहसी और उदार विचारों वाली कर्तव्यपरायण महिला थी। उनमें समर्पण, सहनशीलता और साहस कूट-कूट कर भरा था। उन्होंने अपने पति ज्योतिबा राव फूले को सामाजिक कार्यों हेतु सदैव प्रेरित किया। मनुवादी अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था का विरोध करने में सदैव उनका साथ दिया और संकट के समय भी उनकी सहयोगी बनी रहीं। उन्होंने अपने जीवन को शूद्रों और शोषितों के कल्याण और विकास हेतु समर्पित कर दिया था। उन्हें देवी-देवता और भाग्य और ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं था। वह अन्धविश्वास, कर्मकाण्ड और पूजा-पाठ को भी मानव कल्याण में बाधक मानती थीं। उन्होंने समाज में शिक्षा, सद्भाव, करूणा, मैत्री, समता और बन्धुता के प्रसार हेतु सफल प्रयास किया था।

माता सावित्री बाई फूले ने समाज में फैली रूढ़िवादिता और अज्ञानता को दूर करने हेतु घर-घर जाकर महिलाओं को समझाया और उन्हें बालिकाओं को शिक्षा प्राप्त करने हेतु स्कूलों भेजने के लिए प्रेरित किया था। उनकी सूझ-बूझ और अथक प्रयास से ही पूणे की जनता में शिक्षा का प्रसार संभव हो सका था। फूले दम्पति के कोई संतान नहीं थी। उन्होंने विधवा प्रसूतीगृह में छोड़े गये अनाथ बालक को गोद लेकर उसका लालन-पालन किया। वह बालक यशवन्त राव उच्च शिक्षा पाकर डाक्टर बना और आजीवन "सत्य शोधक समाज" के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करता रहा। सावित्री बाई फूले का संघर्षमय आदर्श जीवन और उनके क्रान्तिकारी विचार आज भी प्रासंगिक, अनुकरणीय और प्रेरणादायक हैं।