हमारी प्रेरणा
संत गाडगे महाराज
जन्म: 23 फरवरी 1876, शेड़गांव अमरावती
मृत्यु: 20 दिसंबर 1956
पिता: झिंगरा जी जाडो़रकर
माता : सखू बाई
बीसवीं सदी के समाज-सुधार आन्दोलन मैं संत गाडगे का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। संत गाडगे बाबा की कर्म भूमि महाराष्ट्र होने के कारण उनका अधिकांश साहित्य मराठी में उपलब्ध रहा है। हिंदी में साहित्य की उपलब्धता कम होने के कारण हिंदी भाषी क्षेत्र में संत गाडगे जी का ज्यादा प्रचार प्रसार नहीं हो सका। जैसे ही उनसे संबंधित साहित्य हिंदी भाषा में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हुआ वैसे ही उनका प्रचार प्रसार संपूर्ण भारत में हो गया।
प्रारंभ में बुद्धिजीवियों का ध्यान संत गाडगे बाबा की तरफ ज्यादा नहीं जा सका। उनके द्वारा किए गए कल्याणकारी कार्यों से जब लोग परिचित हुए उनके कार्यों की सराहना पूरे देश में होने लगी। अब गाडगे बाबा पर बहुत सारे लेखकों द्वारा हिंदी में पुस्तकें लिखी गई हैं। जिसमें उनके समाज सुधार आन्दोलन एवं उनके योगदान को रेखांकित किया जा रहा है।अगर देखा जाय तो गाडगे बाबा भगवान बुद्ध से अत्यधिक प्रभावित हुए हैं। उनकी शिक्षाओं को देखकर ऐसा लगता है कि वे कबीर और रैदास से भी प्रभावित थे। यह संयोग ही है कि संत रैदास और गाडगे बाबा की जयंती एक ही महीने में पड़ती है। गाडगे बाबा का जन्म 23 फरवरी, 1876 ई0 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले की तहसील अंजन गांव सुरजी के शेणगाँव नामक गाँव में कहीं सछूत और कहीं अछूत समझी जाने वाली धोबी जाति के एक गरीब परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम सखूबाई और पिता का नाम झिंगराजी था।बाबा गाडगे का पूरा नाम देवीदास डेबूजी झिंगराजी जाड़ोकर था। घर में उनके माता-पिता उन्हें प्यार से ‘डेबू जी’ कहते थे। डेबू जी हमेशा अपने साथ मिट्टी के मटके जैसा एक पात्र रखते थे। इसी में वे खाना खाते और पानी भी पीते थे। महाराष्ट्र में मिट्टी से बने मटके को गाडगा बोला जाता है। इसी कारण कुछ लोग उन्हें गाडगे बाबा तो कुछ लोग गाडगे महाराज कहने लगे । गाडगे बाबा डा. अम्बेडकर के समकालीन थे तथा उनसे उम्र में पन्द्रह साल बड़े थे। वैसे तो गाडगे बाबा बहुत से राजनीतिज्ञों से मिलते-जुलते रहते थे। लेकिन वे डा. आंबेडकर के कार्यों से अत्यधिक प्रभावित थे। इसका कारण था जो समाज सुधार सम्बन्धी कार्य वे अपने कीर्तन के माध्यम से लोगों को उपदेश देकर कर रहे थे, वही कार्य डा. आंबेडकर राजनीति के माध्यम से कर रहे थे। गाडगे बाबा के कार्यों की ही देन थी कि जहाँ डा. आंबेडकर तथाकथित साधु-संतों से दूर ही रहते थे, वहीं गाडगे बाबा का वह अत्यधिक सम्मान करते थे। वे गाडगे बाबा से समय-समय पर मिलते रहते थे तथा समाज-सुधार सम्बन्धी मुद्दों पर उनसे सलाह-मशविरा भी करते थे। डा. आंबेडकर और गाडगे बाबा के सम्बन्ध के बारे में समाजशास्त्री प्रो. विवेक कुमार लिखते हैं कि ‘‘आज कल के दलित नेताओं को इन दोनों से सीख लेनी चाहिए। विशेषकर विश्वविद्यालय एवं कालेज में पढ़े-लिखे आधुनिक नेताओं को, जो सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा समाज-सुधार करने वाले मिशनरी तथा किताबी ज्ञान से परे रहने वाले दलित कार्यकर्ताओं को तिरस्कार भरी नजरों से देखते हैं और बस अपने आप में ही मगरूर रहते हैं।
क्या बाबा साहेब से भी ज्यादा डिग्रियाँ आज के नेताओं के पास है? बाबा साहेब संत गाडगे से सामाजिकआंदोलन एवं सामाजिक परिवर्तन के विषय में मंत्रणा करते थे। यद्यपि उनके पास किताबी ज्ञान एवं राजसत्ता दोनों थे। अतः हमें समझना होगा कि सामाजिक शिक्षा एवं किताबी शिक्षा भिन्न हैं और प्रत्येक के पास दोनों नहीं होती। अतः इन दोनों प्रकार की शिक्षा में समन्वय की जरूरत है।’’ गाडगे बाबा संत कबीर की तरह ही ब्राह्मणवाद, पाखंडवाद और जातिवाद के विरोधी थे। वे हमेशा लोगों को यही उपदेश देते थे कि सभी मानव एक समान हैं, इसलिए एक दूसरे के साथ भाईचारे एवं प्रेम का व्यवहार करो। वे स्वच्छता पर विशेष जोर देते थे। वे हमेशा अपने साथ एक झाडू रखते थे, जो स्वच्छता का प्रतीक था। वे कहते थे कि ‘‘सुगंध देने वाले फूलों को पात्र में रखकर भगवान की पत्थर की मूर्ति पर अर्पित करने के बजाय चारों ओर बसे हुए गरीब असहाय और बेसहारा लोगों की सेवा के लिए अपना समय , श्रम और अर्थ खपाओ। भूखे को रोटी खिलाई, तो ही तुम्हारा जन्म सार्थक होगा। पूजा के उन फूलों से तो मेरा झाड़ू ही श्रेष्ठ है। यह बात आप लोगों को समझ में नहीं आयेगी।’’ गाडगे बाबा आजीवन सामाजिक अन्यायों के खिलाफ संघर्षरत रहे तथा अपने समाज को जागरूक करते रहे। उन्होंने सामाजिक कार्य और जनसेवा को ही अपना धर्म बना लिया था। वे व्यर्थ के कर्मकांडों, मूर्तिपूजा व खोखली परम्पराओं से दूर रहे। जाति प्रथा और अस्पृश्यता को बाबा सबसे घृणित और अधर्म कहते थे। उनका मानना था कि ऐसी धारणाएँ धर्म में ब्राह्मणवादियों ने अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए जोड़ी है। ब्राह्मणवादी इन्हीं मिथ्या धारणाओं के बल पर आज जनता का शोषण करके अपना पेट भरते हैं। इसीलिए वे लोगों को अंधभक्ति व धार्मिक कुप्रथाओं से बचने की सलाह देते थे। अन्य संतों की भाँति गाडगे बाबा को भी औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने का अवसर नहीं मिला था। फिर भी गाडगे बाबा शिक्षा पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने शिक्षा के महत्व को इस हद तक प्रतिपादित किया कि यदि खाने की थाली भी बेंचनी पड़े तो उसे बेंचकर भी शिक्षा ग्रहण करो। हाथ पर रोटी लेकर खाना खा सकते हो पर विद्या के बिना जीवन अधूरा है। वे अपने प्रवचनों में शिक्षा पर उपदेश देते समय डा. अम्बेडकर को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करते हुए कहते थे कि ‘‘देखा बाबा साहेब अंबेडकर अपनी महत्वाकांक्षा से कितना पढ़े। शिक्षा कोई एक ही वर्ग की ठेकेदारी नहीं है। एक गरीब का बच्चा भी अच्छी शिक्षा लेकर ढेर सारी डिग्रियाँ हासिल कर सकता है।’’ बाबा गाडगे ने अपने समाज में शिक्षा का प्रकाश फैलाने के लिए 31 शिक्षण संस्थाओं तथा एक सौ से अधिक अन्य संस्थाओं की स्थापना की। बाद में सरकार ने इन संस्थाओं के रख-रखाव के लिए एक ट्रस्ट बनाया। डॉक्टर अंबेडकर और गाडगे बाबा एक दूसरे के व्यक्तित्व और कृतित्व से अत्यधिक प्रभावित थे। बाबासाहेब आंबेडकर और गाडगे बाबा एक दूसरे से कई बार मिल चुके थे। बाबासाहेब और संत गाडगे बाबा ने साथ तस्वीर खिंचवायी थी। आज भी कई घरों में ऐसी तस्वीरें दिखायी देती हैं। एक बार गाडगे का बाबा गंभीर रूप से बीमार अवस्था में डॉक्टर महाजनी के यहां रुके हुए थे। जब गाडगे बाबा की बीमारी की जानकारी डॉक्टर आंबेडकर को हुई तो वह उनसे मिलने के लिए डॉक्टर महाजनी के यहां दादर पहुंचे। जबकि इस समय वह कानून मंत्री थे और उन्हें आवश्यक कार्य से दिल्ली जाना था। जैसे ही गाडगे बाबा को जानकारी हुई कि डॉक्टर अंबेडकर उनसे मिलने आए हुए हैं तो तत्काल गाडगे बाबा उठ कर बैठ गए। उन्होंने डॉक्टर आबेडकर से कहा कि आप क्यों आए हैं? आपका बहुत बड़ा अधिकार है। आपका एक-एक क्षण बहुत ही मूल्यवान है। डॉक्टर आंबेडकर ने कहा कि बाबा हमारा अधिकार आज है कल नहीं रहेगा, आपका अधिकार अमर है।गाडगे बाबा ने महाराष्ट्र में महार समाज में जन्मे महान संत चोखा मेला के नाम से पंढरपुर में एक धर्मशाला का निर्माण कराया था। इस धर्मशाला को उन्होंने बाबा साहेब डॉक्टर आंबेडकर द्वारा स्थापित पीपल्स एजुकेशन सोसाएटी को अछूत छात्रों के रहने के लिए छात्रावास हेतु दान की थी। गाडगे बाबा की कीर्तन शैली अपने आप में बेमिसाल थी। वे संतों के वचन सुनाया करते थे। विशेष रूप से संतकबीर, संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर आदि के काव्यांश जनता को सुनाते थे। हिंसाबंदी, शराबबंदी, अस्पृश्यता निवारण, पशुबलि प्रथा का निषेध आदि उनके कीर्तन के विषय हुआ करते थे।’’ यह संयोग ही है कि डा. अम्बेडकर की मृत्यु के मात्र 14 दिन बाद ही गाडगे बाबा ने भी जनसेवा और समाजोत्थान के कार्यों को करते हुए 20 दिसम्बर, 1956 को हमेशा के लिए आँखें बंद कर लीं। उनके परिनिर्वाण की खबर आग की तरह पूरे महाराष्ट्र में फैल गयी। उनके चाहने वाले हजारों अनुयायियों ने उन्हें अपनी अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित की और उनकी अन्तिम यात्रा में सम्मिलित हुए। आज गाडगे बाबा हमारे बीच में नहीं है, लेकिन उनकी शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं, जिससे हमें प्रेरणा लेने की जरूरत है। बाबा का जीवन और कार्य केवल महाराष्ट्र के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए प्रेरणा का स्रोत है। गाडगे बाबा की मृत्यु के बाद 1 मई सन् 1983 ई. को महाराष्ट्र सरकार ने नागपुर विश्वविद्यालय को विभाजित कर ‘संत गाडगे बाबा’ अमरावती विश्वविद्यालय, अमरावती, महाराष्ट्र की स्थापना की। उनकी 42वीं पुण्यतिथि के अवसर पर 20 दिसम्बर, 1998 को भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया। सन् 2001 में महाराष्ट्र सरकार ने उनकी स्मृति में संत गाडगे बाबा ग्राम स्वच्छता अभियान शुरू किया। वास्तव में गाडगे बाबा एक व्यक्ति नहीं, बल्कि अपने आप में एक संस्था थे। वे एक महान संत ही नहीं, बल्कि एक महान समाज सुधारक भी थे। उनके समाज-सुधार सम्बन्धी कार्यों को देखते हुए ही डा. भीमराव आंबेडकर ने उन्हें जोतिबा फुले के बाद सबसे बड़ा त्यागी, जनसेवक कहा था, जो उचित ही था।
ऐसे महापुरुष को शत-शत नमन।